छठ पर्व की उमंग और यात्रा का आरंभ
लाइफ़ में बहुत सी ऐसी घटनाएँ होती हैं जिन्हें आप ताउम्र भूल नहीं पाते हैं। जब भी कभी ज़िक्र होता है, ऐसा लगता है जैसे कि कुछ ही दिन पहले की बात हो और वह सारी घटना आपके आँखों के आगे आ जाती हैं। ऐसी ही कुछ घटना मेरे साथ इस बार के छठ पूजा के बाद हुई जब मैं अपने हसबैंड के साथ पटना से संबलपुर लौट रही थी, बाय कार।
मेरी छोटी बहन सोनी, जो पटना में हर साल अपने घर पर छठ पूजा करती है — मैं अकसर उसके साथ पूजा में शामिल हुआ करती थी, पर किसी कारणवश पिछले कुछ सालों से मैं छठ पूजा में शामिल नहीं हो पा रही थी। पर इस साल 2025 में मेरे हसबैंड विवेक ने प्लान बनाया कि हम छठ पूजा में पटना, सोनी के घर चलेंगे। सोनी ने हमें काफी आग्रह भी किया था।
प्लान यह हुआ कि हम अपनी कार से चलेंगे — संबलपुर से पटना। संबलपुर से पटना की दूरी बाय रोड लगभग 600 किलोमीटर है। मैं भी तैयार हो गई — चलो, हम कार से ही चलेंगे। पटना तक जाने में दो तीन रूट दिख रहे थे गूगल मैप पर। पर हमने प्लान किया कि सुंदरगढ़, कुनकुरी, जशपुर, गुमला, लोहरदगा, बोधगया होते हुए पटना पहुंचेंगे। सारी पैकिंग हो गई, और हमने कार से अपनी यात्रा की शुरुआत की शाम 5:00 बजे, क्योंकि हमारा प्लान था कि हम नाइट में किसी होटल में स्टे करेंगे और नेक्स्ट डे वहाँ पहुँचेंगे।
छठ का त्योहार तीन दिनों का होता है —खरना जो कि 26 अक्टूबर को था, 27 को शाम का अर्घ्य और 28 को सुबह का अर्घ्य। हम 24 अक्टूबर की शाम को निकले थे। नाइट में हम लोहरदगा के एक होटल में स्टे किए। 25 को हम बोधगया घूमते हुए शाम करीब 5:00 बजे पटना अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गए।
बहुत सारे लोग आए हुए थे। मेरा छोटा भाई जो थाईलैंड में रहता है, वह भी छठ पूजा में अपनी वाइफ के साथ आया हुआ था। मेरी एक मौसेरी बहन जो प्रयागराज में रहती है, वह भी आई थी। इसके अलावा और भी बहुत सारे रिश्तेदार आए थे। बड़ा ही अच्छा माहौल था। सोनी के हसबैंड सुनील जी सभी मेहमानों का खास ख्याल रख रहे थे। बड़ा ही अच्छा सब बीत रहा था।
छठ से पहले खरना का सारा विधि-विधान बड़े ही खुशनुमा माहौल में बीता। फिर आया शाम के अर्घ्य का समय — वह भी अच्छे से हो गया।
शाम के अर्घ्य के बाद देर रात तक गाने-बजाने का कार्यक्रम चला। विवेक अच्छा गाते हैं — उन्होंने गाना गया। मेरा भाई चेतन, जिसे घर में हम प्यार से “गुड्डू” बुलाते हैं, वह भी अच्छा गाता है। उसने भी कुछ गाने गाए। मेरी मौसेरी बहन सुप्रिया ने भी गाने की महफ़िल में चार चाँद लगा दिया।
सोनी की ननद रूबी — वह भी गाती है, उसने भी अपनी प्रस्तुति दी। सुनील जी के दोस्त भी गा रहे थे। बैंगलोर से सोनी के देवर अरविन्द अपनी फैमिली के साथ आये थे। अरविन्द से मेरी भी बहुत अच्छी दोस्ती है। और वो भी मस्ती वाले सांग्स पर डांस कर रहे थे। सोनी उपवास में थी, फिर भी वह हम लोगों के साथ बैठकर गानों का आनंद ले रही थी। मिलाजुला के काफ़ी हसीन शाम रही।
फिर आया समय सुबह के अर्घ्य का — वह भी बड़े अच्छे तरीके से संपन्न हो गया।
सोनी का बेटा सुमु , जो बेंगलुरु में जॉब करता है, वह हर वक़्त सबका ख्याल रख रहा था। वह मुझे भी बहुत प्यारा है — उसकी उपस्थिति हम सबको बहुत अच्छी लग रही थी। छठ महापर्व की समाप्ति के बाद हम एक और दिन पटना में सबके साथ रुके। गुड्डू की वाइफ मिली का बर्थडे था — हम सबने मिलकर उसे सेलिब्रेट किया।
रास्तों की उलझन और गूगल की गड़बड़ी
फिर आया उस दिन का सुबह — जब हमें पटना से संबलपुर के लिए निकलना था।
मेरे भाई गुड्डू ने मुझे आने से कुछ देर पहले ही समझाया था — “रात में किसी होटल में ठहर जाना, नाइट ट्रैवल मत करना।”
पर मैं विवेक को जानती हूँ — वह किसी की नहीं सुनता। उसके दिमाग में बस एक ही बात चल रही थी कि “मुझे आज ही घर पहुँचना है।”
सुबह लगभग 9:00 बजे हम पटना से संबलपुर के लिए रवाना हुए। गाड़ी में काफी सामान था। मेरी बहन सोनी को पहली बार मौका मिला था कि वह मुझे भर-भर के प्रसाद दे। क्योंकि अब तक जब भी मैं छठ पूजा में गई थी, हमेशा मेरी वापसी फ्लाइट से होती थी, तो वह ज़्यादा प्रसाद दे नहीं पाती थी।
इस बार मैं अपनी कार से लौट रही थी, तो उसने बहुत सारा फल और ठेकुआ मुझे दे दिया था। गाड़ी के पीछे की सीट और डिक्की पूरा सामान से भरा था।
सबसे विदा लेकर हम निकल गए। अभी हम उसके घर से बस 500 मीटर ही आगे निकले थे कि हम ट्रैफिक जाम में फँस गए। मैंने अपने फ़ोन पर Google Map लगा रखा था — बोधगया का रास्ता दिखा रहा था, और हम सही जा रहे थे। तभी विवेक ने कहा, “लोहरदगा लगाओ, कोई और रास्ता दिखा रहा है क्या?”
मैंने विवेक के फ़ोन पर Google Map पर लोहरदगा लगाया तो वह दूसरा रास्ता दिखाने लगा। मैं थोड़ी कन्फ्यूज़ हो गई। 300 मीटर आगे एक टर्न था — एक फ़ोन में Google एक रास्ता दिखा रहा था और दूसरा फ़ोन दूसरा रास्ता दिखा रहा था।
मैंने विवेक से कहा, “गाड़ी साइड में रोको, हम ठीक से देखकर फिर चलेंगे और उसी रास्ते से चलेंगे जिधर से हम आए थे।” विवेक ने गाड़ी तो रोकी, लेकिन वह मेरे साथ सलाह-मशवरा के मूड में नहीं था।
खुद को ज़्यादा होशियार साबित करने के लिए उसने मेरे हाथ से मोबाइल लिया,और उसमें Mappls (MapofIndia) खोला, लोहरदगा लगाया और सामने रखकर गाड़ी चलाने लगा।
मुझे थोड़ा इंसल्ट महसूस हुआ। मैं अपने दोनों हाथों में दो मोबाइल लेकर मैप देखकर उससे सलाह मशविरा करना चाहती थी ताकि रास्ता तय करें, पर वह “ज़्यादा काबिल” बन रहा था। मैंने फिर अपना फ़ोन साइड में रखा और सीट को पीछे झुकाकर आँखें बंद कर लीं।
अगर आप आज के दिनों में पटना गए होंगे तो आपको अच्छी तरह पता होगा कि अगर आपने पटना में एक भी रोड मिस कर दिया — तो फिर आप गए ! पता नहीं कितना घूमना पड़ेगा। बस वही हुआ — विवेक की आवाज़ में जो पहले आत्मविश्वास की बुलंदी थी, अब वह दयनीय हो गई थी। वह बोला, “अब क्या करें San ?” मुझे गुस्सा और झुंझलाहट दोनों हो रही थी। दोनों को समझ नहीं आ रहा था।
अब शुरू हुआ दौर — ग़लत रास्ते से बाहर निकलने का। एक तो ट्रैफिक बहुत ज़्यादा, ऊपर से Google आंटी और मैंपल चाची को भी कुछ पता नहीं था 😅 समझ नहीं आ रहा था कि इस “रोड के माया जाल” से निकले कैसे। आख़िरकार हमने एक रास्ता पकड़ा — जो काफी ट्रैफिक झेलते हुए, और खराब सड़कों से होकर हमें बोधगया हाईवे पर मिला।
जिस रास्ते पर हम सुबह 9:30 बजे होने चाहिए थे, वहाँ हम दिन के 11:00 बजे पहुँचे — यानि जितनी देर में हम बोधगया पहुँच सकते थे, उतनी देर में हम सोनी के घर के आसपास ही घूम रहे थे। 😄
यहाँ मैं कुछ ज्ञान की बातें बताना चाहूँगी — जो मैंने इस सफ़र से सीखा 👇
1️⃣ सबसे पहले तो आपको गूगल मैप देखने आना चाहिए .
2️⃣ दूसरा — कभी भी लॉन्ग रूट में जाएँ, तो सिर्फ़ अगले 50 – 60 किलोमीटर तक को ही मैप पर लगाएँ।
3️⃣ तीसरा और सबसे ज़रूरी — हाईवे रोड कभी मत छोड़िए, चाहे छोटा रास्ता कितना भी नज़दीक क्यों न दिखे।
अब हम बोधगया क्रॉस कर चुके थे। समय करीब दोपहर 12:30 के आसपास था, और अब तक हम उसी रास्ते से जा रहे थे — जिस रास्ते से हम आए थे। मौसम बड़ा सुहाना था, हल्की-हल्की बारिश हो रही थी, गर्मी बिलकुल नहीं लग रही थी। मेरे मोबाइल पर गूगल मैप लगा कर कार के डैशबोर्ड पर सेट करके रख दिया था।
अच्छा सफ़र कट रहा था… बीच-बीच में सबके कॉल आ रहे थे — सब सही चल रहा था। यहाँ मैं एक बात बताना चाहती हूँ — जब आप पटना से संबलपुर आ रहे हो, तो आपको पहले बिहार, फिर झारखंड, उसके बाद छत्तीसगढ़ से गुजरना पड़ता है और आखिर में ओडिशा। और एक बात — पेट्रोल के दाम भी हर राज्य में अलग-अलग हैं। बिहार में ₹106 लीटर, झारखंड में ₹98 लीटर, छत्तीसगढ़ में ₹100 लीटर, और ओडिशा में ₹101 लीटर।
हमने जाते समय झारखंड में पेट्रोल लिया था, फिर थोड़ा कम पड़ने के कारण कुछ पटना में भी लेना पड़ा था। अब हम झारखंड इन कर चुके थे, तो हमने फिर से पेट्रोल भरवा लिया। हमने प्लान किया कि जब हम झारखंड के एंड पर पहुँचेंगे, तो फिर से पेट्रोल ले लेंगे।
हालाँकि यह दो-तीन रुपये के फर्क से कुछ होता नहीं है, पर यह एक हमारी मानसिकता है — और यही मानसिकता हमें आगे काफ़ी राहत देने वाली थी। जब आप आगे की कहानी पढ़ोगे तो आपको पता चलेगा क्यों।
अब दोपहर के करीब दो बज चुके थे। मुझे काफ़ी भूख लग रही थी, पर रास्ते में खाने का कोई ढंग का होटल या ढाबा नहीं मिल रहा था। अभी हम झारखंड के चतरा में थे। फिर लगभग दिन के 2:15 के आसपास हमें एक ढाबा दिखा, हम वहाँ रुके और काफ़ी बकवास-सा लंच किया — क्योंकि भूख लगी थी, तो खाना पड़ा।
3:00 बजे के आसपास हम वहाँ से निकले। लगभग शाम 5:00 बजे हम उस जगह पर पहुँचे जहाँ हम आते वक्त रात में रुके थे — लोहरदगा, जो कि झारखंड में ही है। हमारे कैलकुलेशन से — हम आते वक्त 5:00 बजे संबलपुर से चले थे और रात के 10:30 बजे लोहरदगा पहुँचे थे। तो अब अगर 5:00 बजे लोहरदगा से निकलें, तो 10:30 बजे तक संबलपुर पहुँच जाना चाहिए — सीधा-सा हिसाब था। पर… नहीं! हम हाईवे रोड पर बढ़े जा रहे थे।
घने जंगल में खोए — डर और साहस की रात
धीरे-धीरे अँधेरा होने लगा। फोन में गूगल मैप लगा हुआ था। यहाँ मैं एक और बात बता दूँ — मुझे और विवेक दोनों को रीडिंग ग्लासेस लगते हैं। तो होता यूँ है कि बिना चश्मे के हमें फोन में क्लियर नहीं दिखता। और ट्रैवल में अब कौन बैग से चश्मा निकाले और लगाए! तो हम दोनों ही थोड़ा आलस कर जाते हैं — और यही आलस हमें आगे भारी पड़ा।
शाम के 7:00 बजे के आसपास हम झारखंड बॉर्डर छोड़ रहे थे। हमने गाड़ी में पेट्रोल फुल कराने के लिए एक पेट्रोल पंप पर गाड़ी लगाई और टंकी फुल करा ली। अब हम छत्तीसगढ़ में एंटर कर चुके थे — कि अचानक बारिश तेज़ होने लगी। काफी तेज़ बारिश में विवेक गाड़ी चला रहे थे। मुझे थोड़ा डर-सा लग रहा था।
अभी लगभग रात के 7:00 बजे थे। मैं जानती थी कि विवेक मेरी बात नहीं मानेंगे, फिर भी मैंने उनसे कहा — “कहीं होटल में रुक जाते हैं।” पर वो बोले — “अरे नहीं, पहुँच जाएँगे 10 बजे तक!”
हमने गूगल मैप पर संबलपुर लगाकर रखा हुआ था। और हम मैप को फ़ॉलो करते आगे बढ़ रहे थे। अभी रात के 8:00 बजे थे, और हम हाईवे पर चल रहे थे, कि अचानक गूगल आंटी ने कहा — “Take Left.” हम दोनों ने बिना चश्मे के मोबाइल की ओर देखा — रोड Y शेप में था। हमने “आंटी” की बात मानी और लेफ्ट ले लिया। तब हम जशपुर से कुनकुरी वाले रास्ते में थे, और इसके बाद ही गूगल ने हमें जंगल में जाने को कहा। अभी हम लगभग 10 किलोमीटर ही अंदर गए होंगे कि हमें लगा — हम छत्तीसगढ़ के घने जंगल में आ चुके हैं! पर हमने सोचा — शायद यह रोड आगे किसी हाईवे से मिल जाएगा। हम थोड़ा पैनिक तो हुए, पर लगा — “गूगल रास्ता बता रहा है तो सही ही होगा।”
हम उस रास्ते पर बढ़ते गए… रात गहरी होती जा रही थी… और सामने बस जंगल ही जंगल। इतना घना कि दिन में भी गुजरने में डर लगे। हम लगभग 50 किलोमीटर अंदर आ चुके थे, पर एक राहत की बात थी — कि उस वीरान जंगल में कहीं-कहीं एक छोटा-सा घर दिख जाता था, जहाँ कोई इंसान तो नहीं, पर थोड़ी सी लाइट जल रही होती थी — हर चार-पाँच किलोमीटर की दूरी पर।
मैंने विवेक से पूछा — “यह लोग इतने गहरे जंगल में इस तरह से अकेले रहते हैं, क्या इन्हें डर नहीं लगता? क्या ये हमारे तुम्हारे जैसे इंसान हैं?” तो विवेक ने कहा — “नहीं, ये लोग कुछ तो अलग होते होंगे।”
मुझे गूगल मैप पर अब शक होने लगा था, तो मैंने विवेक के फोन में मैपल भी लगा दिया था। दोनों ही सेम रास्ता दिखा रहे थे।
हम डरते-डरते आगे बढ़ रहे थे — यह सोचकर कि शायद अब हम हाईवे को कनेक्ट कर जाएँगे। और अब हम एक ऐसी जगह पर आ गए थे जहाँ कुछ घर थे और एक-दो आदमी भी दिख रहे थे। पर वो रास्ता वहीं एन्ड था। विवेक ने एक आदमी से पूछा — “भाई, हमें ओडिशा जाना है।” उसने कुछ बताया — मैंने नहीं समझा क्योंकि उसने कहा, “दाहिने ले लेना, बाएँ ले लेना,” फिर एक-दो जगह का नाम भी बोला, पर कुछ समझ नहीं आया। हम वहाँ से चल दिए — विवेक को कितना समझ आया, मुझे नहीं पता।

अभी भी गूगल और मैपल दोनों काम कर रहे थे और दोनों एक ही रास्ता बता रहे थे। पर पता नहीं क्यों हम दोनों को उस रास्ते पर जाने से डर लग रहा था। फिर हमने तय किया — चलो गूगल को ही फॉलो किया जाए। यहाँ पर रोड में ज़्यादा कर्व था और हम गूगल के अनुसार उस रोड में चल दिए। वह सड़क कच्ची थी। 10 मीटर आगे जाते ही हमारी गाड़ी के चारों टायर फिसलने लगे — जो कि फ्रंट सीट पर बैठी मैं भी महसूस कर रही थी।
वॅगनआर कार है हमारी, जो कि 10 साल पुरानी है पर आज भी बहुत मेंटेन है। और मैं आपको बता दूँ — मैंने जिक्र किया था कि पीछे जब हम क्रॉस कर रहे थे तो बारिश हो रही थी — तो जाहिर है कि बारिश इधर भी जमकर हुई थी। पूरी कच्ची सड़क फिसलन वाली हो गई थी। हम किसी तरह उस सड़क पर 50 मीटर ही गए होंगे कि आगे एक पुल दिखा — छोटा सा कल्वर्ट, नया बना हुआ, जो कि कच्ची सड़क से ठीक से कनेक्टेड नहीं था।
मैं “ना-ना” करती रही — पर विवेक ने उस पुल पर गाड़ी चढ़ा दी। और फिर धम की आवाज़ से गाड़ी पुल की दूसरी तरफ़ उतर गई। थोड़ी देर के लिए राहत महसूस हुई — कि चलो, हम पुल पार कर लिए। लेकिन नहीं… अभी लगभग 5 मीटर ही आगे बढ़े थे कि सामने कीचड़ आ गया! अब लो, काटो तो खून नहीं। ऐसी स्थिति में हम फँस गए — आगे जा नहीं सकते,
और अब गाड़ी को उस पुल पर चढ़ा भी नहीं सकते। जगह इतनी कम थी कि हम बैक भी नहीं कर सकते थे। अँधेरा इतना कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। हमारी हालत ख़राब होने लगी। वह जगह ऐसी थी जहाँ गाड़ी दिन में भी रोक दी जाए तो लोग गाड़ी से बाहर नहीं निकलेंगे — इतनी भयानक जगह में हम फँस चुके थे।
मेरे दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि अब हम यही अँधेरे में गाड़ी में पूरी रात काट लेंगे और अगर जिंदा बचे तो सुबह कोई मदद कर हमें बचा लेगा। भूत-प्रेत, जानवर — सब लग रहा था जैसे आस-पास ही हैं। अभी रात के 10:00 बज रहे थे। मेरा फोन 12% चार्ज था और विवेक का फोन 10%। अब सिचुएशन यह थी कि यहाँ से फोन भी काम नहीं कर रहा था — फोन में “No Network” आ रहा था।
विवेक अच्छा ड्राइव करते हैं — उन्होंने काफ़ी हिम्मत दिखाई और बड़े बैलेंस तरीके से, काफ़ी छोटी सी जगह में गाड़ी को टर्न कर लिया। थोड़ी जान में जान आई। अब हम गाड़ी से बाहर निकले। अब गाड़ी उस पुल पर चढ़ने की हालत में नहीं थी। पूल के पास थोड़ा एज सा था। हम बाहर आकर एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे — काफ़ी डर लग रहा था। As usual — विवेक दिखा रहे थे कि “मैं डरा हुआ नहीं हूँ।”
हम दोनों ने गाड़ी की लाइट ऑन रखकर कुछ बड़े पत्थर और ईंट चुनना शुरू किया, फिर उन्हें हमने पुल के आगे लगा दिया। फिर हमने सोचा — चल के आगे वाले रोड का मुआयना किया जाए। अगर संभव हो तो उसी दिशा में आगे जाएँगे। विवेक ने तुरंत गाड़ी की लाइट बंद की और बोले —
“कहीं लाइट के कारण बैटरी बैठ गई तो गाड़ी स्टार्ट भी नहीं होगी।” अब घुप्प अँधेरा — बस एक मोबाइल का टॉर्चलाइट और हम एक-दूसरे का हाथ थामे उस रास्ते का मुआयना करने चल पड़े — उसी भयानक जंगल में।
अभी हम बस चार-पाँच मीटर ही गए होंगे कि हमें पता चल गया कि हम इस रास्ते में आगे नहीं जा सकते हैं, हम फिर वापस आए — आते वक्त जो भी लकड़ी या पत्थर दिखा, उसे हाथ में पकड़े गाड़ी के पास आ गए। अब पुल कुछ इस हाल में दिख रहा था, कि शायद हम पार हो जाएँगे। विवेक ड्राइवर सीट पर बैठे और बोले — “मैं निकाल लूँगा… तुम मत बैठो, पहले मैं निकाल लूँ, फिर तुम बैठना।”
कुछ पल के लिए मुझे भी लगा कि मैं न बैठूँ। पर पल भर में ही मुझे ज़ोरों का डर लगा — ऐसा महसूस हुआ मानो अगर विवेक गाड़ी आगे ले गए और मैं पीछे रह गई, तो कोई जानवर या भूत-प्रेत मुझ पर हमला कर देगा! तो मैं क्या ही कर पाऊँगी। फिर मैंने झट से कहा — “गाड़ी निकालो या न निकालो — मैं तो गाड़ी के अंदर ही रहूँगी।”
फिर हमने भगवान का नाम लिया, और विवेक ने झटके में गाड़ी बढ़ाई — गाड़ी पुल को पार कर गई! थोड़ी जान में जान आई, पर मुसीबत अभी भी टली नहीं थी। अब शुरू हुआ वो फिसलन वाला रास्ता — जहाँ गाड़ी के चारों टायर अलग-अलग दिशा में घूम रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो अब गाड़ी खड्डे में गिर जाएगी। उस पल बस भगवान भगवान कर रहे थे —
बड़ी ही मुश्किल के बाद अब हम रोड पर थे। पर अब हमें पता नहीं चल रहा था कि जाना किधर है। विवेक बस गाड़ी भगाए जा रहे थे। फोन में ना इंटरनेट था, ना कॉल लग रहा था। अब हम फिर से उसी जगह के आस-पास थे जहाँ हमने किसी से रास्ता पूछा था। और मजे की बात — वहाँ हमें फिर से एक आदमी दिख गया।
फिर विवेक ने उससे पूछा — “हमें ओडिशा जाना है।” उस आदमी ने भी कुछ रास्ता बताया — इस बार भी मुझे कुछ समझ में नहीं आया। उसने कहा — “दाहिने लेना, बाएँ लेना,” और फिर उसने एक-दो गाँव के नाम भी बोले।
मैं अपने फोन में गाँव का नाम नोट कर रही थी — पर नतीजा कुछ भी नहीं।
वो औरत कौन थी? — ईश्वरीय संकेत या संयोग?
विवेक फिर वहाँ से चले — गाड़ी को इधर-उधर भगा रहे थे। अब मुझे इस बात से राहत थी, कि गाड़ी में पेट्रोल भरा हुआ था — तो पेट्रोल का कोई टेंशन नहीं था। अब मैं काफ़ी डर गई थी। तभी मुझे एक घर दिखा — बिलकुल जंगल में — एक इकलौता घर। बाहर एक लाइट जल रही थी। जंगल के उस गहरे अँधेरे में वह लाइट हमें काफ़ी राहत दे रही थी।
हमने उस घर के आगे गाड़ी रोकी। मैंने विवेक के हाथ से सोने की अंगूठी उतारी, अपनी अंगूठी और मंगलसूत्र उतारा, सारा गोल्ड एक छोटे से डिब्बे में रखकर गाड़ी के अंदर छिपा दिया।
मैं गाड़ी में बैठी रही — विवेक उस घर के दरवाज़े को नॉक करने लगे। काफ़ी देर तक दरवाज़ा खटखटाने के बाद भी न अंदर से कोई आवाज़ आई न कोई बाहर आया। मन में बहुत बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे। मुझे लग रहा था — “शायद यह हमारी ज़िंदगी की आख़िरी रात है… अब हम कल का सूरज नहीं देख पाएँगे…”
मेरा ख्याल था कि यहाँ थोड़ी रोशनी है, क्यों ना हम यहीं गाड़ी में रात काट लें, फिर सुबह निकलने का प्लान करेंगे। पर विवेक ने फिर गाड़ी चलानी शुरू कर दी। वो किसी भी रास्ते में गाड़ी को ले जा रहे थे, कुछ पता नहीं — कहाँ जा रहे थे।
मैं फोन पर कॉल लगाने की कोशिश कर रही थी। अभी रात के साढ़े 10:00 हो रहे थे। मैंने विवेक की दीदी — यानी मेरी ननद —
जो रायपुर में रहती हैं, को कॉल किया। जीजा जी की पूरी ज़िंदगी छत्तीसगढ़ में ही कटी है। मुझे लगा — दीदी को बता देना चाहिए कि हम छत्तीसगढ़ के जंगल में फँसे हैं। मैं बार-बार उन्हें कॉल लगा रही थी। विवेक गाड़ी चला रहे थे — कि तभी अचानक एक छोटा सा झोपड़ा दिखा, और वहाँ बाहर आग जल रही थी। एक औरत उस आग के पास बैठकर कुछ कर रही थी। मैंने विवेक से कहा — “देखो, वहाँ एक औरत बैठी है!” विवेक ने गाड़ी रोकी और गाड़ी से उतरकर उस औरत की तरफ़ बढ़े।
इसी बीच मेरा फोन कनेक्ट हो गया। मेरी ननद ने फोन उठाया — मैंने उन्हें बताया कि हम जंगल में खो गए हैं। अब वो लोग बहुत परेशान हो गए — उनके दिमाग में तुरंत नक्सलाइट आया — कि शायद तुम लोग नक्सल क्षेत्र में हो। अब मुझे नक्सलियों के बारे में जानकर और ज़्यादा डर लगने लगा। तब तक विवेक उस औरत से बात करके लौट चुके थे।
उन्होंने गाड़ी को बैक किया और एक अलग से रास्ते में जाने लगे — जो रास्ता मुझे दिखा ही नहीं था।
मैंने विवेक से पूछा — “अब कहाँ जा रहे हो?” वो बोले — “वो लेडी मुझे इसी रास्ते में जाने के लिए बोली।” मैं अभी भी श्योर नहीं थी कि हम सही रास्ते पर जा रहे हैं या नहीं। मैंने दीदी को फिर से कॉल बैक करने की बात की और कॉल डिसकनेक्ट किया। विवेक ने कहा — “गूगल मैप पर सुंदरगढ़ लगाओ।” मैंने लगाया — रास्ता सही दिखा रहा था। कुछ आगे जाने के बाद हमें कुछ मोटरसाइकिलें आती दिखीं। अब हमें लगने लगा कि शायद हम सही रास्ते पर चल रहे हैं। इस बीच दीदी और जीजा जी के कॉल लगातार आ रहे थे।
हम किसी तरह से अपने फोन को ज़िंदा रखे हुए थे। काफी जद्दोजहद के बाद अब हम फाइनली हाईवे रोड पर थे। अब वहाँ गाड़ियाँ दिख रही थीं, दुकानें दिख रही थीं — हमने चैन की साँस ली। हमें भूख भी बहुत लग रही थी।एक ढाबे में विवेक ने गाड़ी रोकी — वहाँ कुछ रोटी-दाल फ्राई खाई। मैंने कुछ नहीं खाया — क्योंकि रात काफी हो गई थी। मन किया — कहीं होटल मिल जाए तो यहीं रात काट लें, सुबह चलेंगे। पर उस रास्ते में कहीं भी कोई ढंग का होटल नहीं था। हम चलते रहे…
जीवन की दूसरी सुबह: आस्था की जीत
फिर सुंदरगढ़ आ गए। वहाँ से हमें रास्ता पता था। रात के 12 :45 बजे हम अपने घर पहुँचे। काफ़ी थके हुए थे — और ऐसा महसूस कर रहे थे मानो मौत को टक से छूकर निकल आए हों। दीदी भी हमारे घर पहुँचने के बाद ही सोईं। पटना छठ ग्रुप में मैंने मैसेज कर दिया — “हम मौत से लड़कर घर पहुँच गए।”
सुबह उठकर विवेक और मैं काफ़ी हँस रहे थे — कैसे हम बच के आ गए! और आज भी जब हम उस रात का ज़िक्र करते हैं — तो वही सवाल आता है — वह औरत आखिर कौन थी, जिसने हमें रास्ता बताया? यही पर आकर लोग भगवान की शक्ति पर विश्वास करते हैं। वह औरत कोई साधारण औरत नहीं थी — वह हमारे लिए साक्षात छठी मैया का अवतार थी,
जिसने हमें उस भयानक जंगल से निकाला था।
जय हो छठी मैया की! 🙏🌅
Super story very compelling