Chandrashekhar Azad ki Mata ka kya Hua
चंद्रशेखर आजाद और उनकी मां के जीवन से जुड़ी सत्य घटनाएं
चंद्रशेखर आजाद जिन्हें आज हमारे देश का बच्चा-बच्चा तक जानता है, ये वास्तव में एक हीरो थे। इनके जीवन चरित्र को पढने पर आज भी युवा पीढ़ी में जोश उत्पन्न हो जाता है। जिस महान स्वतंत्रता सेनानी ने हंसते-हंसते इस देश की खातिर अपने प्राणों की आहुति दे दी, उनकी माता को कितना कुछ सहना पड़ा, यह शायद ही कोई जानता है। उन्होंने एक संघर्षमय जीवन व्यतीत किया, समाज में उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया, गांव में उन्हें “डकैत की मां” कह कर उपेक्षित किया गया। चंद्रशेखर आजाद के शहीद होने के बाद उनकी मां का जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ, हमारे इस आजाद देश के नागरिकों को अवश्य जानना चाहिए।
चंद्रशेखर आजाद का जीवन परिचय
23 जुलाई 1906 चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ जिला के भाबरा गांव में हुआ। वर्तमान में इसे आजाद नगर नाम से जाना जाता है। इनके पिता पंडित सीताराम तिवारी और मां जगरानी देवी चंद्रशेखर आजाद के जन्म से पूर्व उन्नाव जिला (कानपुर) के बदरका गांव के निवासी थे। जो आजाद के जन्म से पूर्व भीषण अकाल पड़ने के कारण भाबरा में आकर बस गए।
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण आजाद को बचपन में ही खेल- खेल में निशानेबाजी में निपुणता हासिल हो गई। आजाद के मन में बचपन से ही देश प्रेम की भावना भरी हुई थी। आम जनता के साथ अंग्रेजों का जो व्यवहार था, इससे उन्हें काफी तकलीफ महसूस होती थी। उन्होंने 14 वर्ष की अल्पायु में, जब वे बनारस के संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई कर रहे थे, वहां के कानून भंग आंदोलन में योगदान दिया था।
सन 1920-21 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े, वे गिरफ्तार हुए। जब जज के समक्ष पेश किया गया तो उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’ पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को अपना निवास बताया। उन्हें 15 कोड़े की सजा सुनाई गई। हर कोड़े पर उन्होंने ‘वंदे मातरम’ और ‘महात्मा गांधी की जय’ का स्वर बुलंद किया, इस घटना के बाद वह सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाने लगे।
1922 में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन अचानक बंद कर दिए जाने पर उनकी विचारधारा ने क्रांति की ओर रुख कर लिया। वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के सक्रिय सदस्य बन गए।
9 अगस्त 1925 में काकोरी ट्रेन लूट कांड लखनऊ के नजदीक HRA के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर किया।
23 दिसंबर 1926 में वायसराय लार्ड इरविन को ले जाने वाली ट्रेन को बम धमाके में उड़ाने में शामिल थे।
1928 में उत्तर भारत की सभी क्रांतिकारी पार्टियों को मिलाकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) का गठन किया।
17 दिसंबर 1928 को लाला लाजपत राय की हत्या का बदला भगत सिंह और राजगुरु ने जॉन सांडर्स की हत्या करके लिया, उसमें आजाद भी शामिल थे।
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चंद्रशेखर आजाद की शहादत
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क (अब का ‘आजाद पार्क’) में आजाद और सुखदेव राज एक साथ बैठकर विचार -विमर्श कर रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने सुखदेव को तो वहां से भगा दिया परंतु स्वयं पुलिस के साथ मुठभेड़ करने लगे। दोनों ओर से गोलीबारी हुई, लेकिन जब चंद्रशेखर आजाद के पास सिर्फ एक गोली बची तो उन्होंने स्वयं को गोली मार ली, क्योंकि उन्होंने प्रण किया था कि कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। उनके शहीद होने के बाद भी अंग्रेज सैनिक उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था।
हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और भगत सिंह ब्रिगेड के राष्ट्रीय संयोजक सुजीत आजाद, जो क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के भतीजे हैं, ने उनकी शहादत के लिए जवाहर लाल नेहरू को दोषी ठहराया है। वे कहते हैं कि नेहरू ने ही ब्रिटिश पुलिस को यह खबर दिया था कि ‘आजाद’ एक साथी सहित अल्फ्रेड पार्क में हैं, क्योंकि कुछ समय पहले ही उनके चाचा अजाद की मुलाकात जवाहरलाल नेहरू के साथ हुई थी।
आजाद के शहीद होने के बाद लकड़ी बेचकर पेट पालती थी उनकी मां
चंद्रशेखर आजाद के शहीद होने के कई महीने बाद उनकी मां को पता चला था कि अब वह नहीं रहे। चंद्रशेखर आजाद की शहादत के कुछ साल बाद उनके पिता की भी मृत्यु हो गई थी। आजाद के भाई की भी मृत्यु उनसे पहले हो चुकी थी। पिता के निधन के बाद उनकी मां बहुत गरीबी में जी रही थी, उन्होंने किसी के आगे हाथ फैलाने की जगह जंगल से लकड़ियां काट कर अपना पेट पालना शुरू किया। असमर्थता के कारण वह कभी ज्वार तो कभी बाजरा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थी।
डकैत की मां कह कर बुलाते थे लोग Chandrashekhar Azad ki Mata ka kya Hua
उन्हें डकैत की मां कह कर बुलाया जाता था। गांव वालों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया था। यह स्थिति देश की आजादी के 2 वर्षों बाद 1949 तक कायम रही। देश आजाद होने के बाद ‘आजाद’ के प्रिय मित्र ‘सदाशिव’, जो उन्हीं के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे, जेल से मुक्त होने के बाद आजाद के गांव उनके माता-पिता का हाल -चाल पूछने पहुंचे, तब उन्हें इन सारी बातों की जानकारी हुई। उनकी मां का यह हाल देखकर उन्हें काफी दुख पहुंचा। वे आजाद को दिए हुए अपने वचन का वास्ता देकर उनकी मां को अपने साथ झांसी ले आए।
मार्च 1951 में उनकी मां का देहांत हो गया। सदाशिव ने पुत्र की भांति ससम्मान उनका अंतिम संस्कार अपने हाथों से बड़ागांव गेट के पास श्मशान में किया।
आजाद की माता जी के देहांत के बाद झाँसी के लोगों ने माँ जगरानी देवी जी के नाम पर एक पीठ का निर्माण किया लेकिन तत्कालीन सरकार ने इस निर्माण का विरोध किया और इसे अवैध घोषित कर दिया। परन्तु झाँसी की जनता ने इस सरकारी आदेश का पालन नहीं किया। ये बात स्वतंत्र भारत की है और तब राज्य में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे गोविन्द बल्लभ पंत। माता जी की मूर्ति बनाने की जिम्मेदारी भी आजाद के सहयोगी शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह को दिया गया था। इस जानकारी के बाद वहां की पुलिस ने तिलमिलाकर मूर्ति स्थापना के इस मुहीम के मुखिया सदाशिव को गोली से मारने का आदेश भी दे दिया। और पूरे शहर में लोग उद्वेलित हो माँ जगरानी देवी की मूर्ति स्थापना की जिद में आ गए और सरकारी आदेश का पूर्ण विरोध किया। इस सबके बावजूद पुलिस ने लाठी चार्ज, गोलीबारी कर इस आंदोलन को दबा ही दिया, जिसमे कई लोग घायल भी हुए और कुछ मारे भी गए।
यहां उनका स्मारक बना हुआ है लेकिन यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जिस मां ने ऐसे वीर सपूत को जन्म दिया और इतने कष्ट भोगे. उस राष्ट्रमाता का स्मारक आज तक आकार नहीं ले पाया है।