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महाप्रतापी राजा थे विक्रमादित्य

भारत के उन्नत इतिहास को जितना सामने लाया जाना चाहिए था, उसका कुछ प्रतिशत ही आम जनों तक आ पाया है। इस भारतवर्ष में सदियों से कई प्रतापी राजाओं ने अपनी प्रजा की न केवल सेवा और संपन्न किया है बल्कि संस्कृति और कला के क्षेत्र में अनमोल धरोहरों का निर्माण भी किया है। कुछ प्रतापी राजा अपने मंत्रिमंडल में हर क्षेत्र के विशिष्ट व्यक्तियों को शामिल कर लिया करते थे, जिससे राज्य का सर्वांगीण विकास हो सके। ऐसे ही एक महाप्रतापी राजा थे विक्रमादित्य।

उज्जयिनी (आज उज्जैन) के राजा भर्तृहरि सन्यास धारण करने के बाद वहां शकों ने अपना अधिपत्य जमा लिया किन्तु जल्द ही भर्तृहरि के भाई विक्रमादित्य ने ईसा पूर्व 57-58 में उन्हें परास्त कर फिर से उज्जयिनी की सत्ता सम्भाल लिया। शकों पर विजय प्राप्त करने के बाद ही हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत हुई जिसे विक्रम संवत के नाम से जाना जाता है। आज भी हिन्दू कैलेण्डर इसी पर आधारित होती है।

नौ रत्नों से दमकता था विक्रम दरबार

राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों के बारे में लोगों की अनभिग्यता इतनी है कि उन नौ रत्नो के बारे में शायद पढ़े सुने जरूर होंगे पर ये बिलकुल ही नहीं जानते होंगे कि राजा विक्रमादित्य ही ऐसे राजा थे जिन्होंने अपने मंत्रिमंडल में नवरत्नों को शामिल करने की परिपाटी शुरू की थी।

 

राजा विक्रमादित्य के दरबार में उच्च कोटि के गणितज्ञ, वैद्य, गायक, कवि, ज्योतिष, रक्षा विशेषज्ञ, नीतिकार आदि विद्वान शामिल थे। इन नवरत्नों की ख्याति का  गुणगान सम्पूर्ण भारतवर्ष और विदेशों में हुआ है।

जानिए राजा विक्रमादित्य के अद्भुत नवरत्नों के बारे में

1) धन्वन्तरि – नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है। इसके बाद से ही  शल्य तंत्र के प्रवर्तक को धन्वन्तरि कहा जाता था, इसी कारण शल्य चि‍कित्सकों का संप्रदाय धन्वन्तरि कहलाता था। 

 

धन्वन्तरि द्वारा लिखित ग्रंथों के ये नाम मिलते हैं – रोग निदान, वैद्य चिंतामणि, विद्याप्रकाश चिकित्सा, धन्वंतरि निघण्टु, वैद्यक भास्करोदय तथा चिकित्सा सार संग्रह।

 

 

 

 

 

2) क्षपणक – विक्रम की सभा का द्वितीय रत्न क्षपणक के नाम से कहा गया है। हिन्दू लोग जैन साधुओं के लिए ‘क्षपणक’ नाम का प्रयोग करते थे। दिगम्बर जैन साधु नग्न क्षपणक कहे जाते थे। जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था।

यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे। इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं। 

 

 

 

 

 

 

3) अमरसिंह – ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है।

संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।

राजशेखर की काव्यमीमांसा के अनुसार अमरसिंह ने उज्जयिनी में काव्यकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। संस्कृत का सर्वप्रथम कोश अमरसिंह का ‘नामलिंगानुशासन’ है, जो उपलब्ध है तथा ‘अमरकोश’ के नाम से प्रसिद्ध है। ‘अमरकोश’ में कालिदास के नाम का उल्लेख आता है। मंगलाचरण में बुद्धदेव की प्रार्थना है और कोश में बौद्ध शब्द विशेषकर महायान संप्रदाय के पाए जाते हैं। अतएव यह निश्चित है कि कोश की रचना कालिदास और बुद्धकाल के बाद हुई होगी।

 

4) शंकु – इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है। ‘ज्योतिर्विदाभरण’ के अतिरिक्त शंकु का उल्लेख अन्यत्र प्राप्त नहीं होता।

 

5) वेतालभट्ट – विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।

 

ऐसा विदित होता है वेताल भट्ट साहित्यिक होते हुए भी भूत-प्रेत-पिशाचादि की साधना में निष्णात तथा तंत्र शास्त्र के ज्ञाता होंगे। और यह भी संभव है कि वेताल भट्ट आग्नेय अस्त्रों एवं विद्युत शक्ति में पारंगत होंगे तथा कापालिकों एवं तांत्रिकों के प्रतिनिधि रहे होंगे।

 

इनकी साधना शक्ति से राज्य को लाभ होता होगा। विक्रमादित्य ने वेताल की सहायता से असुरों, राक्षसों और दुराचारियों को नष्ट किया होगा।

 

 

6) घटखर्पर – जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।

इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है, इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है। इसमें 21 श्लोकों में नीति का सुंदर विवेचन किया गया है। इनके प्रथम काव्य पर अभिनव गुप्त, भरतमल्लिका, शंकर गोवर्धन, कमलाकर, वैद्यनाथ आदि प्रसिद्ध विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे।

 

 

 

 

 

 

7) कालिदास – ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है।

कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। प्राय: समस्त प्राचीन मनीषियों ने कालिदास की अंत:करण से अर्चना व प्रशंसा की है।

 

8) वराहमिहिर – वराहमिहिर ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे। भारतीय ज्योतिष-शास्त्र इनसे गौरवास्पद हो गया है, इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें-‘बृहज्जातक‘, सुर्यसिद्धांत, ‘बृहस्पति संहिता’, ‘पंचसिद्धांतिका’ मुख्य हैं। गणक तरंगिणी’, ‘लघु-जातक’, ‘समास संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योग यात्रा’, आदि का भी इनके नाम से उल्लेख पाया जाता है। उन्होंने यवन ज्योतिषियों के नामों का भी उल्लेख किया है अत: स्पष्ट है कि ग्रीक से यहां का व्यापारिक संबंध था इसी कारण साहित्यिक आदान-प्रदान हुआ।

 

9) वररुचि – कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं। वररुचि ने ‘पत्रकौमुदी’ नामक काव्य की रचना की। ‘पत्रकौमुदी’ काव्य के आरंभ में उन्होंने लिखा है कि विक्रमादित्य के आदेश से ही वररुचि ने पत्रकौमुदी काव्य की रचना की। इन्होंने ‘विद्यासुंदर’ नामक एक अन्य काव्य भी लिखा। इसकी रचना भी उन्होंने विक्रमादित्य के आदेश से की थी। 

काव्यमीमांसा के अनुसार वररुचि ने पाटलिपुत्र में शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी। कथासरित्सागर के अनुसार वररुचि का दूसरा नाम कात्यायन था। इनका जन्म कौशाम्बी के ब्राह्मण कुल में हुआ था। जब ये 5 वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी।

ये आरंभ से ही तीक्ष्ण बुद्धि के थे। एक बार सुनी बात ये उसी समय ज्यों-की-त्यों कह देते थे। एक समय व्याडि और इन्द्रदत्त नामक विद्वान इनके यहां आए। व्याडि ने प्रातिशाख्य का पाठ किया। इन्होंने इसे वैसे का वैसा ही दुहरा दिया।

 

व्याडि इनसे बहुत प्रभावित हुए और इन्हें पाटलिपुत्र ले गए। वहां इन्होंने शिक्षा प्राप्त की तथा शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की।

 

मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में महाकाल मंदिर के समीप ही राजा विक्रमादित्य का टीला है जहाँ पर इन सभी नवरत्नों की मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। 

By Vivek Sinha

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