आज के दौर में जहां लोगों का विश्वास न्याय पर से उठता जा रहा है, वही हमारे इतिहास के पन्नों में देखा जाए तो हमारे देश में ऐसे भी न्यायकर्ता हुए, जिन्होंने अपने त्याग, धर्म शीलता, निस्वार्थता और न्यायप्रियता की अनोखी मिशाल कायम की है। ऐसे ही न्यायकर्ता की कर्तव्य-परायणता का उल्लेख मिलता है “सिंहासन बत्तीसी और राजा भोज” की कथाओं के द्वारा। सिहासन बत्तीसी 32 कथाओं का एक लोक कथा संग्रह है, जिसमें प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य एक चर्चित पात्र हैं।
सिहासन बत्तीसी के लेखक के नाम
सिंहासन बत्तीसी मूलतः संस्कृत की रचना सिंहासनद्वात्रिंशति का हिन्दी रूपांतर है, जिसे द्वात्रिंशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत में भी इसके मुख्यतः दो संस्करण हैं – उत्तरी संस्करण “सिंहासनद्वात्रिंशति” के नाम से तथा दक्षिणी संस्करण “विक्रमचरित” के नाम से उपलब्ध है। पहले के संस्कर्ता क्षेमेन्द्र मुनि कहे जाते हैं। बंगाल में भट्टराव ररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरूप माना जाता है। इसका दक्षिणी रूप अधिक लोकप्रिय हुआ।
सिंहासन बत्तीसी भी वेताल पच्चीसी या वेतालपंचविंशति की भांति बहुत लोकप्रिय हुआ। लोकभाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रूप में रच-बस गए। इन कथाओं की रचना “वेतालपंचविंशति” या “वेताल पच्चीसी” के बाद हुई। पर निश्चित रूप से इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन इतना तय है कि राजा भोज के शासनकाल के समय का ही होगा, जिन्होंने १०१० ईस्वी से १०५३ ईस्वी तक राज किया था।
बत्तीस कथाओं की भूमिका
इन बत्तीस कथाओं की भूमिका भी कथा ही है जो राजा भोज की कथा कहती है। ३२ कथाएँ ३२ पुतलियों के मुख से कही गई हैं जो एक सिंहासन में लगी हुई हैं। राजा भोज को यह सिंहांसन विचित्र परिस्थिति में प्राप्त होता है।
एक दिन राजा भोज को पता चलता है कि एक साधारण सा चरवाहा अपनी न्यायप्रियता के लिए विख्यात है, जबकि वह बिल्कुल अनपढ़ है तथा उनके ही राज्य के कुम्हारों की गायें, भैंसे तथा बकरियाँ चराता है। जब राजा भोज ने जांच कराई तो पता चला कि वह चरवाहा सारे फ़ैसले एक टीले पर चढ़कर करता है।
राजा भोज की जिज्ञासा बढ़ी और उन्होंने खुद भेष बदलकर उस चरवाहे को एक जटिल मामले में फैसला करते देखा। उसके फैसले और आत्मविश्वास से भोज इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उससे उसकी इस अद्वितीय क्षमता के बारे में जानना चाहा। जब चरवाहे ने (चन्द्रभान नाम था उसका) बताया कि उसमें यह शक्ति टीले पर बैठने के बाद स्वत: चली आती है, भोज ने सोचविचार कर टीले को खुदवाकर देखने का फैसला किया। जब खुदाई सम्पन्न हुई तो एक राजसिंहासन मिट्टी में दबा दिखा। जब धूल-मिट्टी की सफ़ाई हुई तो सिंहासन की सुन्दरता देखते बनती थी।
यह सिंहासन कारीगरी का अभूतपूर्व रूप प्रस्तुत करता था, जो सोने का बना नौ रत्नों से जड़ित, अलौकिक सिंहासन था। उस सिंहासन के चारो ओर आठ आठ पुतलियां जड़ी हुईं थी, अर्थात कुल 32 पुतलियां थी। उसे उठाकर महल लाया गया तथा शुभ मुहूर्त में राजा का बैठना निश्चित किया गया।
राजा भोज ज्यों ही उस पर बैठना चाहे पुतलियां उपहास करते हुए हंसने लगी। खिलखिलाने का कारण पूछने पर सारी पुतलियों ने एक एक कर बताया कि यह सिंहासन महाराज विक्रमादित्य का है, जो उनकी तरह योग्य, पराक्रमी, दानवीर और विवेकशील होगा, वही इस सिंहासन पर बैठने के योग्य हो सकता है।
यह कथाएं इतनी लोकप्रिय हैं कि कई संकलनकर्ताओं ने इन्हें अपनी-अपनी तरह से प्रस्तुत किया है। सभी संकलनों में पुतलियों के नाम दिए गए हैं, पर हर संकलन में कथाओं में, कथाओं के क्रम में तथा नामों में और उनके क्रम में भिन्नता पाई जाती है।
32 पुतलियों के नाम इस प्रकार है –
1.रत्नमंजरी, 2.चित्रलेखा, 3.चंद्रकला, 4.कामकंदला, 5.लीलावती, 6.रविभामा, 7.कौमुदी, 8.पुष्पवती, 9.मधुमालती, 10.प्रभावती, 11.त्रिलोचना, 12.पद्मावती, 13.कीर्तिमती, 14.सुनयना, 15.सुंदरवती, 15.सत्यवती, 17.विद्यावती, 18.तारावती, 19.रूपरेखा, 20.ज्ञानवती, 21.चंद्र ज्योति, 22.अनुरोधवती, 23.धर्मवती, 24.करुणाव, 25.त्रिनेत्री, 26.मृगनयनी, 27.मलयवती, 28.वैदेही, 29.मानवति, 30.जय लक्ष्मी, 31.कौशल्या, 32.रानी रूपवती।
इस प्रकार 32 पुतलियों ने राजा विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का वर्णन कहानी के रूप में राजा भोज के समक्ष किया। सभी कहानियों को सुनने के बाद राजा भोज को इस बात का एहसास हुआ कि वह महाराजा विक्रमादित्य के समान नहीं है, और सिंहासन पर बैठने की उनकी जिज्ञासा समाप्त हो गई।