डायरेक्टर अनुराग बसु की ‘लूडो’ (Ludo) देखने के बाद मेरे दिमाग में अनायास एक सवाल आया कि आखिर फिल्म का नाम ऐसा क्यों रखा गया. क्योंकि इसमें चार लोगों की कहानी है? क्योंकि इनकी कहानियां लूडो की गोटियों की तरह एक दूसरे के आगे-पीछे भागती हैं और किस्मत के पासे के हिसाब से एक दूसरे का रास्ता काटती हैं? शायद यही वजह रही होगी. नाम से ख्याल आया कि लूडो में ऐसी क्या बात है जो ये खेल लोगों को बहुत पसंद आता है? जो हार जाए वो दोबारा अपनी किस्मत आजमाना चाहता है और जो जीत जाए वो दोबारा दांव लगाना चाहता है. वो वजह है इस खेल की रफ्तार, इसकी निष्पक्षता, अनिश्चितता और किस्मत के बावजूद दिमाग के इस्तेमाल की गुंजाइश. करीब ढाई घंटे लंबी ‘लूडो’ फिल्म देखकर लगता है कि डायरेक्टर ने कोशिश तो की कि खेल की तरह फिल्म में भी रफ्तार हो, पाप-पुण्य के हिसाब से ऊपर फिल्म निष्पक्ष हो, कहानी में ऐसे मोड़ हों कि वो अनिश्चितता से लबरेज हो और किरदारों के किस्मत कनेक्शन के साथ दिमागी कसरत का भी डोज हो. लेकिन लगता है ‘आउट ऑफ कंट्रोल’ वर्ल्ड की कॉमेडी दिखाने में फिल्म की स्क्रिप्ट ‘आउट ऑफ हैंड’ होने की माइनर ट्रैजेडी हो गई.
ध्यान रहे मैं यहां जिस ट्रैजेडी की बात कर रहा हूं, उससे आपका वास्ता फिल्म आधी से ज्यादा निकल जाने के बाद होगा. और चूंकि फिल्म ओटीटी प्लैटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है तो रोचकता का स्वाद बनाए रखने और उत्सुकता को विराम देने के लिए फास्ट फॉरवर्ड का कंट्रोल आपके हाथ में होता ही है.
बहरहाल फिल्म की शुरुआत काफी दार्शनिक लहजे में होती है. यमराज की वेशभूषा में खुद अनुराग बसु चित्रगुप्त राहुल बग्गा के साथ जिंदगी का फलसफा बताते हुए ‘लूडो’ का आगाज करते हैं. और एक-एक कर चार मुख्य किरदार यानी डॉन सत्तू भैया (पंकज त्रिपाठी), अपराध की दुनिया छोड़ चुका बिट्टू (अभिषेक बच्चन), बिल्डर के मर्डर का गवाह राहुल (रोहित सर्राफ) और सेक्सटेप में ‘फंसे’ आकाश चौहान (आदित्य रॉय कपूर) शहर के एक छोर पर मिलते हैं. साथ में पांचवे किरदार आशिक आलोक कुमार (राजकुमार राव) की कहानी भी चल रही है. अब इन पांच किरदारों की कहानियां कैसे एक दूसरे से जुड़ी है और आगे कहां जाने वाली है इसकी जमीन तैयार करने में वक्त थोड़ा लंबा खिंच जाता है और थोड़ी असहजता लगती है कि बात आगे क्यों नहीं बढ़ रही. क्योंकि एक बिल्डर की हत्या के प्लॉट पर इंट्रो के बाद जब चारों किरदार एक जगह मिलते हैं कहानी एक सिलेंडर ब्लास्ट के साथ वहीं से आगे बढ़ती है.
फिर आगे आने वाले उबाऊपन से पहले दर्शकों को मनोरंजन का हर मसाला मिलता है. कॉमेडी, इमोशन, सस्पेंस, केमिस्ट्री और अदाकारी सब कुछ.
फिल्म की सबसे बड़ी खासियत ये है कि एक के बाद एक फिल्मों और वेब सीरीज में लगभग एक जैसा निगेटिव रोल करने वाले पंकज त्रिपाठी इस बार एकदम अलग रंग में नजर आए और डॉन के गंभीर किरदार के बीच कॉमेडी का कॉकटेल वाकई कमाल करता नजर आया. प्यार के लिए अपराध छोड़ने वाले शूटर की भूमिका में अभिषेक बच्चन ने जबरदस्त वापसी की है, जेल की सजा काटने के बाद अपनी नन्ही बच्ची से दूरी का दर्द और उसी उम्र की दूसरी बच्ची के साथ भावुक रिश्ते को पर्दे पर उतार कर अभिषेक ने जता दिया है कि अभी उनमें बहुत एक्टिंग बाकी है.
वहीं बचपन के प्यार के लिए कुछ भी करने को तैयार आशिक के रोल में राजकुमार राव ने भी दर्शकों को खूब चौंकाया और बताया कि किरदार में डूबना किसको कहते हैं. हालांकि एकाध जगह पर वो अपनी पुरानी अदाकारी को ही दोहराते दिखे. फिल्म में इंस्पेक्टर बने इश्तियाक खान भी तब अपने फॉर्म में नजर आए जब सेक्सटेप की जांच को लेकर परेशान श्रुति चोक्सी (सान्या मल्होत्रा) पुलिस स्टेशन में उन पर झल्ला उठती है. इसके अलावा पपेट शोमैन की भूमिका में आदित्य रॉय कपूर अपने पॉलिटिकली इनकरेक्ट डायलॉग में खूब जमे लेकिन एक्टिंग में कोई खास दम दिखाने में नाकाम रहे. फिल्म में मॉल बॉय से मालामाल बने रोहित सर्राफ भी अपनी छाप छोड़ने में असफल रहे, जबकि उन्हें मौका खूब मिला.
वहीं बाल कलाकार इनायत वर्मा की जितनी तारीफ की जाए कम है. मां-बाप की अनदेखी से नाराज बच्ची की रोल में अपने अपहरण की कहानी बुनना और अभिषेक बच्चन के सामने करीने से अपना किरदार निभाना इनायत की बड़ी कामयाबी रही. बाकी एक्ट्रेस में सान्या मल्होत्रा के रोल में कुछ नए रंग जरूर दिखे लेकिन आशिक राजकुमार के सामने फातिमा सना शेख फीकी नजर आईं. अस्पताल में भर्ती डॉन सत्तू भैया (पंकज त्रिपाठी) के साथ नर्स कुट्टी की रोल में शालिनी वत्स ने कोई कसर नहीं छोड़ी तो बिट्टू (अभिषेक बच्चन) की पत्नी के किरदार में आशा नेगी ने भी दम दिखाया. हालांकि एक्ट्रेस में सरप्राइज पैकेट रहीं बॉलीवुड में डेब्यू करने वाली मलयालम फिल्म इंडस्ट्री की एक्ट्रेस पर्ली मनी जिन्होंने डॉन के करोड़ों रुपये लेकर भागने वाली संकोची नर्स शीजा थॉमस की भूमिका में लोगों का दिल जीत लिया.
लूडो’ उन फिल्मों में शामिल है जिनमें ना तो अलग-अलग रंग के किरदारों की कमी है ना ही कलाकारों ने उन किरदारों को निभाने में कमी की है. लेकिन किरदारों और कहानी के अंदर की कहानियों को बांधने में कहीं ना कहीं डायरेक्टर अनुराग बसु नाकाम रहे. नतीजा ये हुआ कि कहानियों को समेटने में फिल्म लंबी हो गई और कहीं-कहीं बोरियत का बैरोमीटर एक्टिव हो गया. जबकि अनुराग अलग-अलग कहानियों को साथ बुनने में माहिर हैं और 13 साल पहले ही ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ जैसी बेहतरीन फिल्म बनाकर अपना हुनर दिखा चुके हैं.
‘लुडो’ फिल्म में कहीं स्टोरी का ओवरडोज दिखा तो कहीं ट्विस्ट्स की ऐक्रोबैटिंग नजर आई. किडनैपिंग और सेक्सटेप की तहकीकात की कहानी लंबी हो गई, तो आलोक (राजकुमार राव) की आशिकी की हद दिखाने में कहानी की ओवरकिलिंग हो गई. ना तो पति को कानून के चंगुल से छुड़ाने के लिए बेचैन पिंकी का अचानक अपने पति की हत्या समझ में आई, ना ही अमीर पति से शादी के लिए बेचैन श्रुति का अचानक आकाश के लिए हृदय परिवर्तन की वजह समझ आई. ऐसे में अगर फिल्म थोड़ी छोटी होती और मुख्तलिफ कहानियां अपने लाजिम अंजाम तक पहुंच पाती तो लाजवाब साबित होती. हालांकि इन सबके बावजूद अनुराग बसु की ये कॉमेडी जरूर देखनी चाहिए क्योंकि ये कॉमेडी ऑफ एरर्स तो कतई नहीं है.