प्राचीन भारत के हाईटेक साइंस का जीता जागता प्रमाण – हजारों साल पुराने लौह स्तंभ
रहस्य के मामले में या उन्नत विज्ञान के बारे में बात की जाए तो भारत का नाम हमेशा सबसे आगे आता है। यहां की धरती अनेकों रहस्यमयी चीजों से भरी हुई है। यहां की हर प्राचीन वस्तु में कोई न कोई गूढ़ ज्ञान या रहस्य छुपा ही होता है। जो लोगों को सोचने पर विवश कर देता है की जिस हाईटेक साइंस की बात आज सारा संसार कर रहा है, उसे सदियों पूर्व हमारा देश साबित कर चुका है।
प्रमाण के तौर पर दिल्ली के कुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ को ही देखा जाए।
98% लोहे से बना यह स्तंभ अपनी उच्च तकनीक से निर्मित होने के कारण गत कई दशकों से दुनिया को चुनौती दे रहा है। खुले वातावरण में वर्षों से नम वायु और बारिश को झेलते हुए यह ज्यों का त्यों खड़ा है। इस पर कभी भी जंग नहीं लगा।
सोलह सौ साल पुराना लौह स्तंभ दिल्ली के महरौली नामक स्थान पर कुतुब मीनार के अंदर अवस्थित है। जिसका वजन लगभग 3 टन (6614 पाउंड) है। इसकी ऊंचाई 23 फीट 8 इंच अर्थात 7.21 मीटर है और यह 16 इंच (41 सेंटीमीटर) व्यास वाला लोहे का स्तंभ जमीन में 3 फुट 8 इंच नीचे गड़ा है।
गरुड़ स्तंभ और विजय स्तंभ के नाम से भी से जाना जाता है यह स्तंभ।
माना जाता है कि इस लौह स्तंभ का निर्माण राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (राज 375 -412) ने कराया है। जिसका पता उस पर लिखे लेख से चलता है, जो गुप्त शैली का है।
कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इसका निर्माण उससे बहुत पहले किया गया था, संभवत 912 ईसापूर्व में।
इसके अलावा कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि यह सम्राट अशोक के द्वारा बनाया है जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था।
स्तंभ पर संस्कृत में लिखे लेख के अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। माना जाता है कि मथुरा में इसे विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने खड़ा किया गया था जिसे 1050 ईसवी में तोमर वंश के राजा और दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल ने दिल्ली लाया।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने नहीं बनवाया था क़ुतुब मीनार
यह भी कयास लगाया जा रहा है के संभवत 1600 साल से पूर्व 912 इसवी में इसका निर्माण किया गया था जो हिंदू और जैन मंदिर का एक भाग था। 13वीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके कुतुब मीनार की स्थापना की।
निर्विवाद रूप से इसे दुनिया भर के धातु वैज्ञानिक भी मानते हैं कि पुरातन काल में भारत में धातु-विज्ञान (Metallurgy) का ज्ञान उच्चकोटि का था।
धातु इतिहासकारों के लिए जो सबसे बड़ी पहेली है इस स्तंभ के निर्माण में उपयोग की गई तकनीक। क्योंकि ऐसा क्या उपयोग किया गया इसमें, जिसकी वजह से यह स्तंभ आज भी नया है।
साल 1998 में इसका खुलासा करने के लिए आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर डॉ सुब्रमण्यम ने एक प्रयोग किया, रिसर्च के दौरान पाया कि इसे बनाते समय पिघले हुए कच्चे लोहे में फास्फोरस को मिलाया गया था। यही वजह है कि इसमें आज तक जंग नहीं लग पाया।
कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि स्तंभ को बनाने में वूज स्टील का इस्तेमाल किया गया है। इसमें कार्बन के साथ-साथ टंगस्टन और वैनेडियम की मात्रा भी होती है जिससे जंग लगने की गति को काफी हद तक कम किया जा सकता है। रासायनिक परीक्षण से यह भी पता चला है कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20- 30 किलो के कई टुकड़ों को जोड़कर किया गया है।
अब जो प्रश्न उठता है वह है क्या इतने बरसों पहले भारत की तकनीक इतनी विकसित थी?
दुनिया यह मानती है कि फास्फोरस का पता हैनिंग ब्रांड ने सन 1669 में लगाया था, लेकिन इस स्तंभ का निर्माण तो 1600 साल पूर्व में किया गया था, यानि कि हमारे पूर्वजों को इससे पहले ही इसके बारे में पता था।
दूसरा सवाल यह है कि 1600 साल पहले गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की तकनीक क्या इतनी विकसित थी, क्योंकि उन टुकड़ों को इस तरीके से जोड़ा गया है कि पूरे स्तंभ में एक भी जोड़ दिखाई नहीं देता।
सिर्फ दिल्ली के इस स्तम्भ में ही नहीं धार, मांडू, माउंट आबू, कोदाचादरी पहाड़ी पर पाए गये लौह स्तम्भ, पुरानी तोपों में भी यह जंग-प्रतिरोधक (Anti-rust) क्षमता पाई गयी है।
इसके निर्माता को लेकर चाहे जो भी संशय हो, किन्तु हजारों साल पुराने लौह स्तंभ का सदियों से बिना किसी जंग के ऐसे खड़ा रहना भारत के गौरवशाली उन्नत विज्ञान की गाथा सुना रहा है।